Sister Nivedita
भगिनी निवेदिता उन विदेशी महिलाओं में गिनी जाती हैं, जिन्होंने भारतीय संस्कृति भगनी निवेदता का विदेशी महिलाओं में गिनी जाती हैं, जिनोंने भारतीय संस्कृति दिया। जन्म से भारतीय न होते हुए भी निवेदिता ने हमेशा भारत को ही अपनी मातृभूमि समझा।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
जन्म एवं प्रारंभिक जीवन – निवेदिता का जन्म 28 अक्तूबर, 1867 को उत्तरी आयरलैंड के नगर टायरान में हुआ था। उनके पूर्वज मूलत: स्कॉटलैंड के निवासी थे और वहाँ से आयरलैंड में आकर बस गए थे। पिता मिस्टर सैमुअल नोबल एवं माता लेडी हेमिल्टन विवाहोपरांत अनेक वर्षों तक निस्संतान रहे। उन्होंने संतान की कामना करते हुए ईश्वर से यह मनौती मानी थी कि संतान होने पर वे उसे प्रभु की सेवा में समर्पित कर देंगे। माता-पिता ने उनका नाम मारग्रेट एलिजाबेथ नोबल रखा था।
निवेदिता का परिवार धार्मिक प्रवृत्ति का था। इसलिए निवेदिता पर भी धार्मिक आस्थाओं का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। वह बचपन से अपने पिता के साथ गरीबों की सेवा-शुश्रूषा करने जाती थीं। इस प्रकार बचपन से ही दीन-दुःखियों और गरीबों की सेवा करना उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गया था। उन्हें अपने दादा और पिता से साहस एवं देशभक्ति की प्रेरणा मिली थी। इसी प्रकार माँ से सुंदरता और विनम्रता विरासत में मिली थी।
भारत के प्रति उत्सुकता – भारत के प्रति बालिका मारग्रेट की उत्सुकता क्यों और कैसे बढ़ी, इसकी एक रोचक कहानी है। एक बार मारग्रेट के पिता के मित्र उनसे मिलने आयरलैंड गए। वहाँ उन्होंने भारत तथा भारतीय संस्कृति की विस्तृत चर्चा की। वह मित्र प्रख्यात धर्मगुरु थे, जिन्होंने भारत में कई वर्षों तक पादरी के रूप में काम किया था। मारग्रेट के बाल-मन पर भारतीय संस्कृति की गहरी छाप पड़ी। उसी समय से उनके मन में भारत आने की इच्छा जाग उठी, जो बाद में सचमुच फलवती हुई।
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स्वामी विवेकानंद – Swami Vivekananda
मारग्रेट के पिता की आय बहुत कम थी। फिर भी वह समय-समय पर जरूरतमंदों की सहायता करते रहते थे। इसके लिए उन्हें अधिक मेहनत करनी पड़ती थी। हद से ज्यादा काम करने के कारण उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा और वह बीमार पड़ गए। चाँतीस वर्ष की उम्र में ही वह स्वर्गवासी हो गए। मरने से पूर्व उन्होंने अपनी पत्नी से कहा था कि जब भी मारग्रेट के लिए भारत से बुलावा आए तो उसे भारत भेज देना। वहाँ वह अपनी योग्यताओं का अच्छी तरह उपयोग कर सकेगी।
पिता की मृत्यु के बाद निवेदिता को माँ के साथ ननिहाल जाना पड़ा, जहाँ उन्हें कठोर अनुशासन में रहना पड़ता था। इसी प्रकार कुछ वर्ष बीत गए। उनके ननिहालवालों ने मारग्रेट और उनकी बहन को अध्ययन के लिए हैली फॉक्स कॉलेज भेजा। वहाँ वे दोनों कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। वहाँ भी छात्रावास का अनुशासन उन्हें अखरता था। फिर भी वे हँसते-खेलते अनुशासित थीं शिक्षिकाएँ उनसे बहुत संतुष्ट थीं।
कॉलेज में मारग्रेट ने जीव-विज्ञान, संगीत और कला में विशेष रूचि का प्रदर्शन किया। हैलिफेक्स कॉलेज क्रॉग्रीगेशन लिस्ट चर्च द्वारा संचालित था। उसकी प्रधानाचार्या लॉरंटी के संपर्क में आकर उन्होंने छात्रावस्था में ही यह संकल्प ले लिया था कि वे आजीवन अविवाहित रहकर धर्म प्रचार हेतु अपना जीवन समर्पित करेंगी।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
शिक्षिका के रूप में कार्य – सन् 1884 में मारग्रेट की शिक्षा समाप्त हुई। वह अध्यापन कार्य करने की इच्छुक थीं, इसलिए उन्हें केस्विक के एक स्कूल में शिक्षिका के रूप में कार्य मिल गया। वहाँ उन्हें छोटे बच्चों को पढ़ाना पड़ता था। यह कोई आसान काम न था, क्योंकि बच्चे पढ़ने की अपेक्षा खेल-कूद के ज्यादा रुचि रखते हैं। मारग्रेट ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए कई दिलचस्प प्रयोग भी किए।
सन् 1892 में उन्होंने अपना निजी स्कूल खोल लिया। जल्दी ही उनके विद्यालय की विशेषताएँ उजागर हो गई और वह आस-पास के इलाकों में प्रसिद्ध हो गया। उनका स्कूल ऐसे क्षेत्र में था, जहाँ गरीब खनिक मजदूरों के अभावग्रस्त बच्चे पढ़ते थे। अतः यहाँ भी मारग्रेट गरीब बस्तियों में घूम-घूमकर सेवा कार्य करती थीं। यहाँ उनका संपर्क अविवाहित धर्म प्रचारकों से हुआ। उनके चरित्र के दोहरेपन को देखकर उन ईसाई पादरियों पर से उनकी आस्था उठ गई।
इसी दौरान एक विदेशी युवा इंजीनियर मारग्रेट के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ। मारग्रेट भी उससे कम प्रभावित नहीं हुई। दोनों का यह प्रभाव या आकर्षण धीरे-धीरे प्रेम में परिवर्तित होने लगा। किंतु दुर्भाग्यवश उनका यह प्रेम परवान नहीं चढ़ पाया, क्योंकि वह युवक किसी बीमारी का शिकार होकर अपना जीवन खो बैठा था। इससे मारग्रेट के कोमल हृदय को बहुत धक्का लगा। फिर भी उन्होंने जल्दी ही अपने आपको स्कूल के कार्यों में व्यस्त रखते हुए अपना दुःख भुलाने का प्रयास किया।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
स्वामी विवेकानंद से भेंट – सन् 1895 में मारग्रेट की एक सहेली लेडी इजाबेल मारगेसन ने स्वामी विवेकानंद से उनकी भेंट कराई। लेडी इजाबेल के यहाँ स्वामी विवेकानंद ने एक सारगर्भित व्याख्यान दिया। मारग्रेट स्वामीजी के व्याख्यान और व्यक्तित्व से इतनी प्रभावित हुई कि उन्होंने मन-ही-मन उन्हें अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया।
स्वामी विवेकानंद के विचारों ने मारग्रेट को बहुत प्रभावित किया था। विवेकानंद के प्रवचनों ने उनकी सोई हुई आत्मा को झकझोर दिया। एक दिन विवेकानंद ने अपने प्रवचन में कहा, “आज संसार को ऐसे बीस पुरुषों और बीस महिलाओं की आवश्यकता है, जो जन-कल्याण के लिए अपने आपको समर्पित कर सकें और साहसपूर्वक यह घोषणा कर सकें कि उन्हें ईश्वर के अलावा किसी और का काम नहीं करना है।
उनका जीवन जनहित के कार्यों के लिए है। क्या आप में से कोई ऐसी महिला या पुरुष हैं ?” मारग्रेट ने सोचा कि वह मैं हूँ, किंतु उनके मुँह से संकोचवश आवाज नहीं निकल सकी। इसी प्रकार एक अन्य प्रवचन में विवेकानंद ने कहा कि हमारे देश की कन्याओं ने अभी तक विद्यालय का मुँह तक नहीं देखा है। हमारा देश तब तक प्रगति नहीं कर सकता जब तक वहाँ की महिलाओं को शिक्षित नहीं किया जाता।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
अपने देश को महिलाओं के कल्याण एवं उनकी शिक्षा के लिए मेरे पास विभिन्न योजनाएँ हैं। मुझे विश्वास है कि उन्हें कार्य रूप देने के लिए मारग्रेट मेरी मदद कर सकती है। विवेकानंद के इस आह्वान पर मारग्रेट ने भारत पहुँचकर सेवा करने का साहसिक निर्णय ले लिया। इसके बाद मारग्रेट ने स्वामी विवेकानंद से पर्याप्त विचार-विमर्श किया। स्वामी विवेकानंद ने उनके सामने भारत की जो तसवीर खींची, उसमें गरीबी, उपेक्षा, द्वेष आदि मौजूद थे।
उन्होंने मारग्रेट को सचेत करते हुए बताया कि यह वह देश है, जहाँ के लोग अपने ही देशवासियों से छुआछूत का व्यवहार करते हैं; जहाँ को महिलाएँ इतने संकुचित विचारों की हैं कि वे एक विदेशी महिला को अपनी लड़कियों को पढ़ाने तो क्या, पास भी फटकने नहीं देंगी। फिर भी मारग्रेट अपने संकल्प से पीछे नहीं हटीं और एक दिन ‘मोबासा’ नामक जलयान पर सवार होकर भारत यात्रा के लिए चल पड़ीं।
भगिनी निवेदिता भारत पहुंची – मारग्रेट का जहाज कलकत्ता बंदरगाह पर 28 जनवरी, 1898 को पहुँचा। उनका स्वागत करने के लिए स्वयं स्वामी विवेकानंद बंदरगाह पर उपस्थित थे। मारग्रेट ने कलकत्ता को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। स्थानीय बंगाली भाषा सीखने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा। कुछ ही दिनों बाद विवेकानंद की दो अमेरिकन शिष्याएँ श्रीमती सारा शीबुल और सुश्री जोसेफिन मैक्लॉयड भारत पहुंचीं। जल्दी ही तीनों में गहरी दोस्ती हो गई।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
स्वामीजी ने हुगली-तट पर स्थित बेलूर मठ में तीनों महिलाओं के निवास की व्यवस्था की। 25 मार्च, 1898 को मारग्रेट नोबल और सुश्री मैक्लॉयड का दीक्षा संस्कार श्री लीलाधर मुखर्जी के बगीचे में संपन्न हुआ। शिवार्चन के उपरांत स्वामीजी ने दोनों अंग्रेज महिलाओं के माथे पर भस्म का त्रिपुंड लगाया और मैक्लॉयड को ‘जया’, सारा शीबुल को ‘ धीरा माता’ और मारग्रेट को’ भगिनी निवेदिता’ के नामों से संबोधित किया।
एक दिन विवेकानंद की शिष्या सुश्री मैक्लॉयड ने पूछा, “स्वामीजी, मैं आपको बेहतर सेवा किस तरह कर सकती हूँ?” स्वामीजी ने तुरंत उत्तर दिया, “भारत से प्यार करो, उसकी पूजा करो। यही सच्ची प्रार्थना और सच्ची पूजा है।” विवेकानंद के इस जवाब को मारग्रेट ने अपने लिए भी एक संदेश मान लिया। 13 नवंबर, 1898 को किराए की एक छोटी सी कुटिया में निवेदिता ने एक छोटी सी पाठशाला आरंभ की। उनके आकर्षक व्यक्तित्व ने पाठशाला को शीघ्र ही लोकप्रिय बना दिया।
लंबे व लहराते सफेद गाउन में वह अत्यंत आकर्षक लगती थीं। उनके गले में पड़ी रुद्राक्ष की माला से उनके संत स्वभाव का परिचय मिलता था। लोग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे तथा श्रद्धावश उनके चरण छूते थे। पाठशाला तो अवश्य शुरू हो गई, लेकिन अब समस्या थी उसके लिए छात्र जुटाने की मारग्रेट घर-घर जात तथा लोगों को अपने बच्चों, विशेषकर लड़कियों को, पाठशाला भेजने के लिए समझातीं।लेकिन उस समय के अशिक्षित लोगों के लिए लड़कियों को पाठशाला भेजने की बात हास्यास्पद व आश्चर्यजनक थी।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
कुछ लोगों ने तो निवेदिता को भला-बुरा भी कहा। फिर भी, वह अपने काम में जुटी रहीं। आखिरकार कुछ कम उम्र की लड़कियों की उन्होंने जुटा ही लिया। उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया; साथ ही चित्रकला, मूर्तिकला, पेंटिंग तथा कुछ अन्य विषयों का ज्ञान कराया। अपने मृदु स्वभाव के कारण मारग्रेट शीघ्र ही लोगों में घुल-मिल गई लोगों के दिलों में उन्होंने स्थान बना लिया। उनके बीच रहते हुए वह उनके घर की सदस्य जैसी हो गईं।
प्लेग रोगियों के लिए कार्य – मार्च 1899 में कलकत्ता में प्लेग का रोग फैला। यह जानलेवा रोग प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की जानें लेने लगा। महामारी की भयावहता इतनी विकराल थी कि सफार्थ के लिए मेहतर भी कतराने लगे। ऐसी स्थिति में भगिनी निवेदिता स्वयं हाथ में फावड़ा लेकर आलमबाग की तंग गलियों में सफाई कार्य में जुट गईं। भगिनी निवेदिता की इस निर्भीकता एवं सेवा भावना से प्रेरित होकर सभी उनके कार्य में हाथ बँटाने लगे।
निवेदिता ने संगठित रूप से प्लेग का मुकाबला करने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक समिति भी गठित की। निवेदिता ने लगातार दिन-रात काम किया। भोजन तथा आराम के लिए भी उन्हें कम ही समय मिल पाता था। इसलिए वह बीमार पड़ गई। खुद के जीवन को खतरे में डालकर उन्होंने कई रोग पीड़ितों को जीवनदान दिया। ये सभी दिन निवेदिता ने मात्र दूध तथा फल खाकर गुजारे। एक बार तो प्लेग के एक मरीज के लिए दवाइयाँ खरीदने के लिए उन्होंने दूध तक का त्याग कर पैसे बचाए।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
बंगाल में भयंकर बाढ़ आने के समय भगिनी निवेदिता द्वारा किया गया सेवा कार्य अद्भुत था। इससे प्रभावित होकर श्री रवींद्रनाथ ठाकुर ने उन्हें ‘लोकमाता’ की उपाधि से विभूषित किया। निवेदिता की पाठशाला की स्थिति पैसों की कमी के कारण गंभीर थी। जहाँ छात्र जुटाने ही मुश्किल हों, वहाँ उनसे शुल्क वसूल करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। तब निवेदिता ने सोचा कि यह अभियान जारी रखने के लिए क्या पश्चिमी देशों से आर्थिक सहायता ली जाए?
आर्थिक मदत के लिए यूरोप लौटे – इस संबंध में उन्होंने अपने गुरु स्वामी विवेकानंद से विचार-विमर्श किया। स्वामीजी की सहमति से वह जून 1899 में यूरोप के लिए रवाना हुई। यूरोप से वह अमेरिका गईं। उनका मुख्य उद्देश्य अपने विद्यालय के लिए ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा करना था, लेकिन अपने स्कूल तथा भारत में अन्य कार्यों के लिए धन जुटाने में उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। जून 1900 में निवेदिता ने भारत लौटकर बोसपारा लेन स्थित अपने मकान को लॉज का रूप दे दिया।
वही उनका घर, वही स्कूल तथा वही यात्रियों के ठहरने का स्थान बन गया। निवेदिता का यही मकान उस समय की प्रमुख राजनीतिक हस्तियों तथा स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों एवं बुद्धिजीवियों का आश्रय स्थल बन गया। उन्हीं दिनों जर्मनी से सुश्री क्रिस्टीन ग्रीनस्टैडेल भारत की सेवा के लिए आई। उन्होंने निवेदिता से संपर्क किया। निवेदिता के लिए उनका सहयोग बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
धीरे-धीरे निवेदिता का विद्यालय फिर चल पड़ा, जिसमें न केवल लड़कियाँ बल्कि उनकी माताएँ भी शिक्षा पाने के लिए आने लगीं। स्कूल का खर्च पूरा करना बहुत कठिन होता जा रहा था, लेकिन निवेदिता तथा क्रिस्टीन ने साहस नहीं छोड़ा। किसी तरह स्कूल चलाती रहीं।
स्वामीजी की समाधी – सन् 1902 निवेदिता के जीवन का सबसे अंधकारमय वर्ष था। वह अपने गुरु स्वामी विवेकानंद को देखने बेलूर मठ गईं। 2 जुलाई, 1902 को एकादशी के कारण स्वामीजी का उपवास था, लेकिन निवेदिता के लिए उन्होंने भोजन तैयार करवाया तथा उनके लिए अपने हाथों से भोजन परोसा।
निवेदिता ने दुःखी होकर कहा, “स्वामीजी, उचित तो यह है कि मैं आपकी सेवा करूँ, लेकिन उलटे आप मेरी सेवा कर रहे हैं !’ स्वामीजी ने उत्तर दिया, “ईसा मसीह ने स्वयं अपने हाथों से अपने शिष्यों के पैर धोए थे। क्या यह सत्य नहीं है ? निवेदिता ने ‘हाँ’ कहना चाहा, लेकिन ये शब्द उनके गले में ही अटककर रह गए। गुरु का आशीर्वाद लेकर वह घर लौटीं। उन्हें क्या मालूम था कि अपने गुरु से उनकी यह अंतिम भेंट थी ?
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
3 जुलाई, 1902 की रात को स्वामीजी ने महासमाधि ले ली। 4 जुलाई की शाम को निवेदिता को स्वामीजी की मृत्यु का हृदय विदारक समाचार मिला। उनका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया। रोशनी चली गई थी, अब चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा था। वह मठ की ओर दौड़ पड़ीं। बिलखते-रोते उन्होंने अपने गुरु को श्रद्धांजलि अर्पित की। भगिनी निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद के विचारों, उनके द्वारा निर्देशित सेवा आदि का ही दायित्व नहीं सँभाला, अपितु भारत के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया।
वे क्रांतिकारियों की संस्था की अनुशासन समिति की सक्रिय सदस्या थीं। महर्षि अरविंद को अंग्रेजों के षड्यंत्र से सावधान कर उन्हें पांडिचेरी जाने का सुझाव भी उन्होंने ही दिया था। भारत की आजादी के लिए बढ़ते संघर्ष के मद्देनजर निवेदिता ने अपने विद्यालय को राष्ट्रीयता का केंद्र बना दिया। बंकिमचंद्र चटर्जी का प्रसिद्ध राष्ट्र गीत ‘वंदे मातरम्’ उनके विद्यालय का प्रार्थना गीत बन गया।
इसके साथ ही वह प्रतिदिन चरखे पर बुनाई का काम करने लगीं। उनकी देखा-देखी उनकी छात्राओं ने भी चरखा चलाना शुरू कर दिया। बंगाली कला में क्रांति लाने का श्रेय भी निवेदिता को ही है। भारतीय संस्कृति अथवा स्वयं प्रेरणा का सहारा न लेते हुए भारतीय चित्रकार पश्चिमी देशों की कला की नकल करने में ही अपनी शान समझते थे। निवेदिता ने उन्हें इस मानसिक गुलामी से मुक्त कराया तथा भारतीयता अपनाने के लिए प्रेरित किया।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
निवेदिता ने कुछ अच्छे कलाकारों को प्रोत्साहित किया। उनकी आर्थिक मदद तक की, ताकि वे अर्जता, एलोरा तथा कला के अन्य केंद्रों का भ्रमण कर भारतीय कला के इन महान् प्राचीन केंद्रों से प्रेरणा ले सकें। निवेदिता के प्रभावशाली प्रयत्नों के फलस्वरूप बंगाली कला खिल उठी। निवेदिता ने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत् करने के लिए कई पुस्तकें लिखी। उन्होंने वेदों और पुराणों के महत्त्व से लोगों को अवगत कराया।
उन्होंने लोगों को यह भी समझाने की कोशिश की कि किस प्रकार भारत के विभिन्न पंथों की शिल्प कलाओ में समानता है। निवेदिता का जीवन अब लगातार राजनीतिक संपर्कों व आंदोलनों, जनसभाओं पुस्तकें लिखने व पत्र-व्यवहार करने में व्यतीत होने लगा। उनके सहयोगियों, समर्थको तथा प्रशंसकों की संख्या में भी वृद्धि होती गई।
ग्रंथसंपदा – निवेदिता एक सफल लेखिका भी थीं। उनकी लिखी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं 1. गुरुजी- जैसा मैंने उन्हें देखा, 2. हिंदुत्व की बाल कथाएँ, 3. भारतीय जीवन को संरचना, 4. स्वामी विवेकानंद के साथ कुछ यात्राओं का विवरण, 5. भेड़ियों के मध्य भेड़ आदि। सन् 1904 में निवेदिता गंभीर रूप से बीमार पड़ीं। उनके निकट सहयोगियों, विशेषकर रामकृष्ण आश्रम के साधुओं ने उनकी बहुत सेवा की।
Sister Nivedita – भगिनी निवेदिता
मृत्यु – 13 अक्तूबर, 1911 को दार्जिलिंग की सुंदर वादियों में भगिनी निवेदिता की इहलीला समाप्त हुई। भगिनी निवेदिता द्वारा स्थापित छोटे से विद्यालय ने आज एक बहुत बड़ी संस्था का रूप धारण कर लिया है, जहाँ हजारों भारतीय युवतियाँ तथा महिलाएँ सही अर्थों में राष्ट्रवाद की में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं।